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कविता

अकेला आदमी

विमलेश त्रिपाठी


उसके अकेलेपन में कई अकेली दुनिया साँस लेती हैं
उन अकेली दुनियाओं के सहारे
वह उस तरह अकेला नहीं होता है

अकेले आदमी के साथ चलती हुई
कई अकेली स्मृतियाँ होती हैं
कहीं छूट गये किसी राग की
एक हल्की-सी कँपकँपी की तरह
एक टूट गया खिलौना होता है
कुछ मरियल सुबह कुछ पीले उदास दिन
कुछ धूल भरी शामें
कुछ मुश्किल से बिताई गयी रातें
इत्यादि... इत्यादि
जो हर समय उसके चेहरे पर उभरी हुई दिख सकती हैं
कि उसके चलने में अपने चलने का वैशिष्ट्य
सिद्ध करते हुए स्पष्ट कौंध सकती है

लेकिन शायद ही यह बात हमारी सोच में शामिल हो
कि अकेला आदमी जब बिल्कुल अकेला होता है
तब वह हमारी नजरों में अकेला होता है
हालाँकि उस समय वह किसी अदृश्य आत्मीय से
किसी महत्वपूर्ण विषय पर
ले रहा होता है कोई कीमती मशविरा
उस समय आप उसके हुँकारी और नुकारी को
चाहें तो साफ-साफ सुन सकते हैं

अकेले आदमी की उँगलियों के पोरों में
आशा और निराशा के कई अजूबे दृश्य अँटके रहते हैं
एक ही समय किसी जादूगर की तरह
रोने और हँसने को साध सकता है अकेला आदमी

अकेला आदमी जब बिल्कुल अकेला दिखता है
तब वास्तव में वह अकेलेपन के विशेषण को
सामूहिक क्रिया में बदल रहा होता है
और यह काम वह इतने अकेले में करता है
कि हमारी सोच के एकान्त में शामिल नहीं हो पाता

और
सहता रहता है किसी अवधूत योगी की तरह वह
हमारे हाथों से फिसलते जा रहे समय के दंश
सिर्फ अपनी छाती पर अकेले
और हमारी पहुँच से दूर

अकेला आदमी कतई नहीं होता सहानुभूति का पात्र
जैसा कि अक्सर हम सोच लेते हैं
यह हमारी सोच की एक अनपहचानी सीमा है
नहीं समझते हम
कि अकेला आदमी जब सचमुच अकेला होता है
तो वह गिन रहा होता है
पृथ्वी के असंख्य घाव
और उनके विरेचन के लिए
कोई अभूतपूर्व लेप तैयार कर रहा होता है

 


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